वह आदमी बात थोड़ी पुरानी है – फरवरी २०११ की। तब मैं वन उत्पादकता संस्थान में रिसर्च एसोसिएट था। हज़ारीबाग़ के सुदूर बड़कागाँव प्रखंड के एक सुदूर गाँव से गुजर रहा था। इस गाँव के पास की पहाड़ी पर दूर से कुछ हरीतिमा नज़र आ रही थी। मतलब वहाँ जंगल था। उस जंगल से कुछ डाटा मिलने की संभावना झलक उठी थी।
वह आदमी बात थोड़ी पुरानी
बात थोड़ी पुरानी है – फरवरी २०११ की। तब मैं वन उत्पादकता संस्थान में रिसर्च एसोसिएट था। हज़ारीबाग़ के सुदूर बड़कागाँव प्रखंड के एक सुदूर गाँव से गुजर रहा था। इस गाँव के पास की पहाड़ी पर दूर से कुछ हरीतिमा नज़र आ रही थी। मतलब वहाँ जंगल था। उस जंगल से कुछ डाटा मिलने की संभावना झलक उठी थी।
गाँव से गुज़र रहा था तो उस बूढ़े पर नज़र पड़ी। नाटा सा इकहरे शरीर का वृद्ध। सर आगे को झुका और कंधे पीछे से ऊपर की तरफ कुबड़े हुए। उसकी भंगिमा में एक जड़त्व था, ठहराव था। मैने गौर किया – वह बूढ़ा उस ग्रामीण पृष्ठभूमि में महुआ के पेड़ के नीचे ऐसे खड़ा था मानो वक़्त ठहर गया हो। मानो कैनवास पर बूढ़े और महुआ के पेड़ का चित्र जड़ा हुआ हो। मैंने अपने ड्राइवर से कहा – देखो, ये बूढ़ा बहुत उम्रदार है। बहुत बहुत उम्रदार। आगे जंगल नहीं मिला। उसे मनुष्य ने खा डाला था।
लौटते हुए वही बूढ़ा रास्ते पर मिला। कंधे पर बाँस की बहँगी। धोती को पोटली बनाकर उसमें धोती के एक छोर से महुआ पोटली में बाँधा गया था और धोती के दुसरे छोर को बहँगी के बाँस से बाँधकर पोटली लटकाया गया था। दोनों पोटली को बहँगी के दोनों छोरों से लटकाए वह बूढ़ा ऐसे आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ रहा था मानो उसके पैरों में, उसकी चाल में ठहराव हो। सर आगे को झुका और कंधे का ऊपर उठा कूबड़ बहँगी को सहारा दिए हुए। दोनों हाथ दोनों पोटली को पकड़े हुए। टाँगे मजबूत, छरहरी और टांगों की उभरी हुई हड्डियाँ अपनी पुरातनता का अहसास कराती हुई। मैं गाड़ी से उतरकर उस बूढ़े के साथ चलने लगा। बातें बस यूँ ही बिना किसी परिचय के आदान-प्रदान के शुरू हुई और बस मैंने वो पूछ ही लिया जो मेरे मन में उसे देखते ही स्वतः उमड़ पड़ा था। यह बूढ़ा आदमी बहुत पुराना है। बहुत-बहुत पुराना।
और उस बूढ़े ने बिना किसी प्रयास के बस सहज भाव से मेरे सवाल का उत्तर दिया। वो चल रहा था। मैं बातें कर रहा था, पर वो रूका नहीं था। आगे की तरफ उसका सर झुका हुआ था। कंधे महुआ के बोझ से दबे पड़े थे। उसके पाँव उसके चप्पलों में धंसे हुए थे। मतलब उसके तलवे की चमड़ी इतनी सख्त और पुरानी पड़ चुकी थी कि तलवे और उँगलियों के तल की रगड़ से हवाई चप्पल में गड्ढे बन चुके थे। मैंने फिर से गौर किया, उसके टांगों की पेशियाँ और पिंडलियों की उभरी हुई हड्डियाँ अपनी पुरातनता का परिचय दे रही थीं।
मैंने पुछा आपकी उम्र ? और उस वृद्ध ने बिना किसी प्रयास के सहज भाव से उत्तर दिया – यही कोई एक सौ बीस – बाईस साल। उसने बिना किसी लाग – लपेट के सहज लहजे में यह बात कही थी और उस बूढ़े के अस्तित्व से आती पुरातनता के अहसास से मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं लगा। एक क्षण को मैं बह गया उस पुरानी काया में। उस बूढ़े को देखते ही उसके बहुत उम्रदार होने की जो छवि इंद्रियों ने ग्रहण की थी वह अनायास ही थी। उसके सफ़ेद केश, बड़ी भारी मूछें और नीचे को लटकी सफ़ेद दाढ़ी, उसके भौं के खिचड़ी बाल और उसकी आँखों का निर्विकार भाव। कहीं से भी अविश्वास की कोई गुंजाइश नहीं।
मैंने अपने आप में महसूस किया। एक साइंस के बन्दे को अपने दिल और इंद्रियों की बात पची नहीं। मैंने दिमाग लगाया- पूछा- भारत की आज़ादी के समय आपकी उम्र कितनी थी? पर अविश्वास तो वहाँ टिक ही नहीं सकता था। उसकी हर काट उस बूढ़े की सहजता में थी। चार जवान बेटे और दो बेटियाँ और आज़ादी के समय उसकी आधी उम्र पार हो गयी थी।
अविश्वास का कोई प्रश्न नहीं था। मैंने दिल को दिमाग के ऊपर हावी होने को छोड़ दिया। उस ग्राम्य परिवेश में एक तटस्थ अनुभूति हुई। एक बूढ़ा चला जा रहा था अपने वक़्त का प्रतीक बनकर और उसके बगल में एक जवान अपने वक़्त का। एक पुराना समय और एक नया। फिर पुराना समय आगे बढ़ गया उसी निर्विकार भाव से। नया समय अपने आगे निकलते पुराने समय को अपनी श्रद्धा से निहारते खड़ा रहा।
फिर नए समय के मन में एक ऊर्जा का संचार हुआ। वह हरदम कहता आया था – मुझे एक सौ बीस साल जीना है। आज उसने देख लिया एक मनुष्य को – एक सौ बीस साल का। हाँ – हाँ ,ये संभव है। अब ये पुराना वक़्त उसके साथ तब तक रहेगा जब तक वो खुद पुराना न हो जाय – एक सौ बीस साल का।
संतोश प्रासद