अनवरत… अविराम वे सारी मजदूरिनें फिर से काम पर जुट पड़ी थीं

अनवरत… अविराम वे सारी मजदूरिनें फिर से काम पर जुट पड़ी थीं

अनवरत… अविराम
वे सारी मजदूरिनें फिर से काम पर जुट पड़ी थीं। उनमें चार बच्चियाँ थीं – अपने उम्र से कई गुना बड़ी। इस मज़दूरी की बदौलत उनके स्कूल और कॉलेज के फीस और अन्य खर्चों का इंतजाम होता था। उम्र- यही कोई पंद्रह से बीस। एप्रोच – खालिश दुनियादारों का। लेकिन व्यवहार – बच्चों के जैसा सरल और मासूम। तभी तो वो अपनी सारी सुध बुध खो काम में जुटी रहती थीं। ये जनजातीय दुनिया है और ये बच्चे और यह मजदूरी इस दुनिया की हकीकत। हकीकत माने किसी का आसरा मत देखो, भविष्य अपने हाथों में है।

रात्रि दरवान कह रहा था- ये लोग बचपन से काम की आदि हैं। मैं आश्चर्य में रह जाता था। दिन भर कुदाल वे अनवरत चलाती रहती हैं और कभी थकती नहीं। कितनी मजबुत काया है इनकी। इतनी शक्ति कहाँ से लाती हैं ये। और कुदाल चलाना भी कैसी जमीन पर। ये रिसर्च फार्म एक छोटे पथरीले टीले पर था जिसपर लाल बजरों वाली चट्टानी मिटटी थी। चट्टानी मिटटी और कुदाल का फल दिन भर भिड़े रहते थे। वे मजबूत हाथ कभी थकते नहीं थे। रोजाना ऐसा ही होता था। टीले के निचले हिस्से से वे ढलान पर ऊपर चढ़ती थीं।

सूरज जब सर पर होता था तब वे टीले के ऊपरी समतल पाट पर रहती थीं। अक्सर एक कोतवाल पक्षी बहुत नीची उड़ान भरते हुए उनके सर के बिलकुल ऊपर से गुजर जाता था। सूरज की खड़ी किरणों की गर्मी से चट्टान गरम हो उठती थी। पसीना चल निकलता था। वे हाथ निरंतर चलते रहते थे। मैं आश्चर्य में डूबता उबरता रहता था। कौन हैं ये मानव मूर्तियाँ। मानव या देव। इतना पराक्रम कहाँ से आता है।

घुम्मकड़ सन्यासी नरेंद्र की याद आती है। उन्होंने भी तो देखा था। और कैसे शब्द निकले थे उनके मुँह से। शब्दशः – इन लोगों ने सहस्र सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है – उससे पायी हैं अपूर्व सहिष्णुता। सनातन दुःख उठाया है जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति। ये लोग मुट्ठी भर सत्तू खा कर दुनिया उलट दे सकेंगे। आधी रोटी मिली तो तीनो लोकों में इतना तेज न अटेगा। इतनी शांति, इतनी प्रीति, इतना प्यार। बेजबान रहकर दिन रात इतना खटना और काम के वक़्त सिंह का विक्रम। ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं। और पाया है सदाचार बल, जो तीन लोक में नहीं है।

और शाम को छुट्टी के समय हाजरी बनाते वक़्त इनका चेहरा कैसा निर्विकार, निर्भाव रहता है। मुझे संकोच होता है उन चेहरों को देखकर। शर्म आती है दिन भर उनके सर पर खड़ा रहकर काम लेने के स्वार्थ पर।

लेकिन फिर तुरंत ही चमत्कार होता है। छुट्टी मिलने के बाद घर की तरफ के पहले ही कदम पर हँसी फुट पड़ती है। कदम छुट पड़ते हैं। बाँहों को बाँहों में फँसाये हँसी की इतनी ऊर्जा बहने लगती है मानो दिन भर कुछ हुआ ही नहीं।
घर वापस लौट कर मैं सोफे पर पसर जाता हूँ। वे क्या करती होंगी – वही औरतों का दायित्व निर्वहन – बच्चों से लेकर रसोई तक। और वे बच्चियाँ- पढ़ती होंगी ना। हाँ – हाँ। निश्चय ही। अगली सुबह वे फिर काम में जुट पड़ेंगी। यही इनका जीवन है। संतोश प्रासद

अनवरत… अविराम
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Menka Singh
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Menka Singh, a graduate with 1.5 years of blogging and content writing experience, excels in crafting engaging and informative content.

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