लतिका – एक कथा
रास्ते किनारे भीख माँगती इस बूढ़ी औरत की आँखों में कितनी कृतज्ञता और सम्मान है। हँसते हुए यह बुढ़िया याचना करती है। कुछ दे देने पर -नौकरी करते रहो- का आशीर्वाद देती है। सचिवालय के इस रास्ते से गुजरने वाले लोग नौकरीपेशा है इसे मालूम है। वो मेरे ऑफिस के पास वाले चौराहे पर बैठती थी, जो राँची का एक व्यस्त चौराहा था। उसकी हँसी में एक खास आत्मीयता थी, जिसे मैं नजरअंदाज नहीं कर पाता था। एक दिन मैंने पूछा कि वो कहाँ रहती है। अब मैं रोज उससे पूछता था-कैसी होऔर बदले में पाता था वही कृतज्ञतापूर्ण मुस्कान। इस मुस्कान के बदले में मेरी जिज्ञासा बढ़ती जाती थी। मैं जानना चाहता था -कौन हैकहाँ से आयी है
वो होली के बाद की सुबह थी। जब मैं चौराहे पर पहुँचा, तो देखा कि वो वहीं बैठी थी। मैंने उससे उसका नाम पूछा, और जब उसने बताया, तो मैं हैरान रह गया। मुझे किसी देशी, ग्रामीण नाम की उम्मीद थी। रूप-वर्ण-गुण वाचक नाम की अपेक्षा कर रहा था। उसने बताया-लतिका। मैंने उस छोटे कद की लगभग साठ साला दुबली पतली साँवली मूर्ति पर गौर किया। तभी मुझे समझ में आया उसके व्यक्तित्त्व का रहस्य। अच्छा तो ये सम्मोहन इस नाम की वजह से है। तो इस सरल और मधुर व्यवहार के पीछे जो स्त्री चरित्र है वो लतिका है। माँ-बाप ने तो बड़े कवित्व भाव से नाम रखा होगा न। लतिका। यानी उन पूर्व पुरुषों के शब्दकोष में लतिका थी। तो फिर ये भिखारन की अवस्था कैसे
काफी देर तक उससे बातें करता रहा। देखा- आज उसके चारों ओर भिक्षा में मिले सामानों का ढेर है। होली के पकवान, पुराने कपड़े वगैरह। उसकी बातें मैं सुनता रहा। कविता तो उसके जीवन में भी थी। बंगाल का एक दूरस्थ गाँव, किसान की बेटी, फिर शादी और बच्चे। फिर अचानक कविता लुप्त हो गयी। कुष्ठ ने हाथ और पैर की उँगलियाँ गला दी। जीवन ज्यादा जटिल हो गया तो राँची में योगदा सत्संग के कुष्ठ आश्रम में पहुँच गयी। पहले घर जाती थी। अब नहीं जाती। पिछला सब छूट गया। अब सिर्फ आगे देखना है।
क्या समझ में आता है। यही न कि जीवन अनिश्चित है। कल का कुछ कहा नहीं जा सकता। वर्तमान ही प्रबल है। लतिका के रूप में गुजरे हुए जीवन के कई आयाम होंगे। बेटी, बहन, पत्नी और माँ। कई पड़ावों से यह व्यक्तित्व गुजरा होगा। जीवन में कितना अर्जन किया। सब छूट गया। अब स्थिरता है, ठहराव है। अब बस फकीरी है…… ……. …….. वानप्रस्थ, सन्यास।
एक दिन चौराहे पर देखा कि लतिका नहीं थी। उसकी जगह एक दूसरी वृद्धा बैठी थी, जो उसी की उम्र की और कुष्ठ रोग से पीड़ित थी। मैंने उससे पूछा, “लतिका कहाँ है?” तब पता चला कि वह कई दिनों से बीमार है। बाद वो आयी। तबीयत पूछने पर वही आत्मीयता पूर्ण मुस्कान। बोला-तुम्हारे बदले कोई दूसरी यहाँ बैठती थी। उसने बताया- इस चौराहे पर दूसरी जगहों के मुकाबले ज्यादा भीख मिलती है। तो जब कभी वो नहीं आती तब दूसरों को बोल देती है।
लतिका को नहीं मालूम पर मुझे मालूम है, इस चौराहे पर लोगों के कदम क्यों रुकते हैं। यहाँ एक सम्मोहन है। एक सरल, आत्मीय, कृतज्ञ और पवित्र मुस्कान। यहाँ लतिका है।
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